कहानी संग्रह >> बवंडर बाहर-भीतर बवंडर बाहर-भीतरअभिमन्यु अनत
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मॉरीशस की राजनीति, समाज, धर्म, संस्कृति आदि के जीवंत सत्यों को उद्घाटित करता यह कहानियों का संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस संग्रह की कहानियाँ मुख्यतः मॉरीशस की राजनीति, समाज धर्म संस्कृति आदि
के जीवंत का उद्घाटन करती हैं। मॉरीशस की स्वतंत्रता के बाद वहाँ के समाज
में राजनेताओं का जो पतन हुआ है, तस्करी, भ्रष्टाचार और देशद्रोहिता जिस
रूप में पनपी है, आदमी-आदमी के रिश्तों में जो गिरावट आई है, स्त्री के
शोषण की जो परिस्थितियाँ बनी हुई हैं, नैतिकता एवं मानवीय एवं मानवीय
रिश्ते जैसे खंडित हो रहे हैं, उन्हें लेखक ने सजीवता के साथ इन कहानियों
में प्रस्तुत किया है। ये कहानियाँ ऐसे बवंडर को उजागर करती हैं जो मॉरीशस
के जन जीवन को अंदर-बाहर दोनों ओर से मथ रहा है।
भूमिका
अभिमन्यु अनत के कहानी संग्रहों-‘खामोशी के चीत्कार’ (1976),
‘इनसान और मशीन’ (1976), ‘वह बीच का आदमी’ (1981)
तथा ‘एक थाली समंदर’ (1987) के बाद अब उनका पाँचवाँ कहानी
संग्रह ‘बवंडर बाहर-भीतर’ सन् 2002 में छपकर पाठकों के सम्मुख
है। इस अंतराल का कारण यह नहीं है कि अनत ने कहानी लिखना बंद कर दिया है, बल्कि सत्यता यह है कि इस संग्रह के बाद भी सौ से अधिक कहानियाँ संग्रहों
में छपने से रह गई हैं। कई बार लेखक से तथा अनत के मेरे जैसे मित्रों से
भी अनजाने में ऐसी लापरवाही हो जाती है, परंतु मेरा विश्वास है कि शेष
कहानियाँ भी शीघ्र ही संग्रहों के रूप में पाठकों तक पहुँच सकेंगी।
अभिमन्यु अनत मॉरीशस की हिंदी कहानी के केंद्र-बिंदु हैं। अभिमन्यु के हिंदी कहानी में पदार्पण से एक नए युग, एक नई चेतना और एक नई संवेदना का युग आरंभ होता है। यह ऐसा ही था जैसे प्रेमचंद ने हिंदी कहानी का कायकल्प कर दिया। अभिमन्यु ने मॉरीशस की हिंदी कहानी को आधुनिक रूप दिया और उसे अतीत के आह्वान से सार्थक बनाया। अभिमन्यु की कहानियों का अतीत गोरे मालिकों की दासता, शोषण और अत्याचार से घिरा है
और वर्तमान अपने ही मालिकों की राजनीति, देशद्रोहिता स्वार्थपरता, भेद-भाव मूल्यहीनता पतनशीलता तथा घोर अमानवीय एवं अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति से; लेकिन इस पर भी कहीं-कहीं मानव मुक्ति की किरण भविष्य की कल्पना में चमक जाती है। अभिमन्यु कल्पनाजीवी नहीं हैं और न दिवास्वप्न प्रेमी; वह अपनी कहानियों में अपने देश की चिंता और नियति के सत्य को उद्घाटित करते हैं। वह किसी साहित्यिक ‘माफिया’ या ‘दलित स्त्री’ विमर्श के बिना ही अपने समाज के पीड़ितों और शोषितों के साथ हैं। इनका उत्थान ही उसके लिए देश का उत्थान है।
‘बवंडर बाहर-भीतर’ कहानी संग्रह में सत्रह कहानियाँ हैं, जिनमें चार लघुकथाएँ हैं। ये कहानियाँ मुख्यतः मॉरीशस की राजनीति, समाज, धर्म, संस्कृति आदि के जीवंत सत्यों का उद्घाटन करती हैं। मॉरीशस की स्वतंत्रता के बाद वहाँ के समाज में राजनेताओं का जो पतन हुआ है, तस्करी, भ्रष्टाचार और देशद्रोहिता जिस रूप में पनपी है, आदमी-आदमी के रिश्तों में जो गिरावट आई है,
स्त्री के शोषण की जो परिस्थितियाँ बनी हुई हैं, नैतिकता एवं मानवीय रिश्ते जैसे खंडित हो रहे हैं, उन्हें लेखक ने सजीवता के साथ इन कहानियों में प्रस्तुत किया है। ये कहानियाँ ऐसे बवंडर को उजागर करती हैं जो मॉरीशस के जन-जीवन को अंदर-बाहर दोनों ओर से मथ रहा है।
मॉरीशस में लोकतंत्र लोक का नहीं, भ्रष्ट नेताओं का तंत्र हो गया है। चुनाव में दाँव-पेंच जात-पाँत, झूठे आश्वासन आदि सभी वहाँ जड़ जमा रहे हैं। मंत्री बनने पर तस्करी और रिश्वत लेने में भय समाप्त हो रहा है। जनता ने गोरे मालिकों के अत्याचार सहन किए, अब अपने चुने नेताओं को सहन कर रही है। राजनीति में हिंसा तक घुस आई है।
धर्म अब सांप्रदायिक दंगों में बदल रहा है। मनुष्य के आपसी रास्ते विकृत हो रहे हैं। पति-पत्नी के रिश्तों में माँ, प्रेमी या प्रेमिका आकर विद्वेष, घृणा और टूटन पैदा कर रही हैं। स्त्री पुरुष के स्वार्थों की शिकार है तथा वह अपना स्वतंत्र मार्ग बना रही है, लेकिन वेश्यावृत्ति फैल रही है और विदेशी मॉरीशस की लड़कियों से शादी करके अपने देश में वेश्या बना रहे हैं। वेश्यावृत्ति का ऐसा आलम है कि बच्चे भी दलाली में उतर रहे हैं। मॉरीशस का समाज ऐसे ही बाहर-भीतर के बवंडर में घिरा है। मानवीय पतन उसे चारों ओर से घेरे चले जा रहे हैं। मॉरीशस के इस समाज की यदि हम भारत से तुलना करें तो दोनों देशों की समस्याएँ एक जैसी प्रतीत होती हैं।
मेरा विश्वास है, ये कहानियाँ पाठक को आज के मॉरीशस का परिचय दे सकेंगी और अभिमन्यु की कहानी यात्रा के इस मोड़ को भी जानने और समझने का मार्ग प्रशस्त करेंगी।
अभिमन्यु अनत मॉरीशस की हिंदी कहानी के केंद्र-बिंदु हैं। अभिमन्यु के हिंदी कहानी में पदार्पण से एक नए युग, एक नई चेतना और एक नई संवेदना का युग आरंभ होता है। यह ऐसा ही था जैसे प्रेमचंद ने हिंदी कहानी का कायकल्प कर दिया। अभिमन्यु ने मॉरीशस की हिंदी कहानी को आधुनिक रूप दिया और उसे अतीत के आह्वान से सार्थक बनाया। अभिमन्यु की कहानियों का अतीत गोरे मालिकों की दासता, शोषण और अत्याचार से घिरा है
और वर्तमान अपने ही मालिकों की राजनीति, देशद्रोहिता स्वार्थपरता, भेद-भाव मूल्यहीनता पतनशीलता तथा घोर अमानवीय एवं अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति से; लेकिन इस पर भी कहीं-कहीं मानव मुक्ति की किरण भविष्य की कल्पना में चमक जाती है। अभिमन्यु कल्पनाजीवी नहीं हैं और न दिवास्वप्न प्रेमी; वह अपनी कहानियों में अपने देश की चिंता और नियति के सत्य को उद्घाटित करते हैं। वह किसी साहित्यिक ‘माफिया’ या ‘दलित स्त्री’ विमर्श के बिना ही अपने समाज के पीड़ितों और शोषितों के साथ हैं। इनका उत्थान ही उसके लिए देश का उत्थान है।
‘बवंडर बाहर-भीतर’ कहानी संग्रह में सत्रह कहानियाँ हैं, जिनमें चार लघुकथाएँ हैं। ये कहानियाँ मुख्यतः मॉरीशस की राजनीति, समाज, धर्म, संस्कृति आदि के जीवंत सत्यों का उद्घाटन करती हैं। मॉरीशस की स्वतंत्रता के बाद वहाँ के समाज में राजनेताओं का जो पतन हुआ है, तस्करी, भ्रष्टाचार और देशद्रोहिता जिस रूप में पनपी है, आदमी-आदमी के रिश्तों में जो गिरावट आई है,
स्त्री के शोषण की जो परिस्थितियाँ बनी हुई हैं, नैतिकता एवं मानवीय रिश्ते जैसे खंडित हो रहे हैं, उन्हें लेखक ने सजीवता के साथ इन कहानियों में प्रस्तुत किया है। ये कहानियाँ ऐसे बवंडर को उजागर करती हैं जो मॉरीशस के जन-जीवन को अंदर-बाहर दोनों ओर से मथ रहा है।
मॉरीशस में लोकतंत्र लोक का नहीं, भ्रष्ट नेताओं का तंत्र हो गया है। चुनाव में दाँव-पेंच जात-पाँत, झूठे आश्वासन आदि सभी वहाँ जड़ जमा रहे हैं। मंत्री बनने पर तस्करी और रिश्वत लेने में भय समाप्त हो रहा है। जनता ने गोरे मालिकों के अत्याचार सहन किए, अब अपने चुने नेताओं को सहन कर रही है। राजनीति में हिंसा तक घुस आई है।
धर्म अब सांप्रदायिक दंगों में बदल रहा है। मनुष्य के आपसी रास्ते विकृत हो रहे हैं। पति-पत्नी के रिश्तों में माँ, प्रेमी या प्रेमिका आकर विद्वेष, घृणा और टूटन पैदा कर रही हैं। स्त्री पुरुष के स्वार्थों की शिकार है तथा वह अपना स्वतंत्र मार्ग बना रही है, लेकिन वेश्यावृत्ति फैल रही है और विदेशी मॉरीशस की लड़कियों से शादी करके अपने देश में वेश्या बना रहे हैं। वेश्यावृत्ति का ऐसा आलम है कि बच्चे भी दलाली में उतर रहे हैं। मॉरीशस का समाज ऐसे ही बाहर-भीतर के बवंडर में घिरा है। मानवीय पतन उसे चारों ओर से घेरे चले जा रहे हैं। मॉरीशस के इस समाज की यदि हम भारत से तुलना करें तो दोनों देशों की समस्याएँ एक जैसी प्रतीत होती हैं।
मेरा विश्वास है, ये कहानियाँ पाठक को आज के मॉरीशस का परिचय दे सकेंगी और अभिमन्यु की कहानी यात्रा के इस मोड़ को भी जानने और समझने का मार्ग प्रशस्त करेंगी।
ए-98, अशोक बिहार
फेज प्रथम दिल्ली-110052
1 जनवरी, 2002
फेज प्रथम दिल्ली-110052
1 जनवरी, 2002
कमल किशोर गोयनका
इतिहास का वर्तमान
एक बार जब बोनोम नोनोन अपने मित्र बिसेसर के साथ अपनी कुटिया के सामने
ढपली बजाता हुआ जोर-जोर से सेगा गाने और नाचने लगा था तो मेस्ये गिस्ताव
रोवियार उस तक पहुँच आया था। उस शाम पहले ही से जीवें की बोतल खाली किए
बैठे नोनोन ने जगेसर से चिलम लेकर गाँजे के दो लंबे कश भी ले लिये थे। उस
ऊँचे स्वर के गाने के कारण मेस्ये रोवियार ने नोनोन को डाँटते हुए कहा था।
कि वह जंगलियों की तरह शोर मत करे। रोवियार की नजर बिसेसर पर नहीं पड़ी
थी, क्योंकि अपने पुराने मालिक के बेटे को दूर ही से ढलान पार करते बिसेसर
ने देख लिया था। बिसेसर का घर नदी के उस पार था, जो इस इलाके में नहीं आता
था। इस इलाके में बिसेसर का आना मना था;
पर अपने मित्र नोनोन से मिलने वह कभी-कभार आ ही जाता था। शक्कर कोठी के छोटे मालिक गिस्ताव का आलीशन मकान, जिसे बस्ती के लोग ‘शातो’ कहते थे, वास्तव में एक महल ही तो था। नोनोन की झोंपड़ी से ऊपर जहाँ पहाड़ी दूर तक समतल थी और जहाँ यह महल स्थित था, वह स्थान तीन ओर से हरे-भरे मनमोहक पेड़ों से घिरा हुआ था।
उस ऊँचाई पर आज सेगा के उस दिन के शोर भी अधिक ऊँचे शोर के साथ वाला संगीत ‘शातो’ से गूँजता हुआ बोनोम नोनोन की कुटिया तक पहुँच रहा था। रात चाँदनी लिये हुई थी। बादल के टुकड़े मस्ती के साथ पश्चिमी क्षितिज की तरफ भागे जा रहे थे। बादलों के पीछे जब-तब चाँद के छिप जाने से ऊपर के पेड़ों की डालियों के हिलने के बीच ‘शातो’ की रोशनी झिलमिला उठती।
उस कोलाहल के बीच भी नोनोन अपनी ढपली के साथ अपने भाई सिमोन का रचा हुआ सेगा गुनगुनाता रहा। हवा में ऊपर से आती हुई रात की रानी तथा अन्य फूल पौधों की भीनी- भीनी गंध नोनोन और बिसेसर की नाकों को छूती हुई माहौल में बनी रही।
इन भीनी-भीनी गंधों ने एक बार फिर बिसेसर के भीतर अपने इकलौते बेटे की याद को ताजा कर दिया। ऐसी ही चाँदनी रात थी। ऐसी ही ठंडक। ठीक सामने के नोनोन द्वारा सुलगाई अँगीठी के अंगारे जैसी ही आँच बिसेसर अपने घर के भीतर ताप रहा था, जब गिस्ताव रोवियार दो बंदूकधारियों के साथ उसके दरवाजे पर धक्के देकर भीतर आ गया था। बिसेसर की बीमार पत्नी चारपाई पर थी। बंदूकधारियों को देख वह चिल्ला उठी थी। उससे भी अधिक जोर से गिस्ताव रोवियार चिल्लाया था।
कहाँ है वह सुअर का बच्चा ?"
एक बंदूक बिससेर की कनपटी और दूसरी बिसेसर की पत्नी की छाती पर तन गई थी। इस घटना के सप्ताह भर बाद बिसेसर की पत्नी, रमेसर की माँ अपने बेटे की हाय-हाय में चल बसी थी। रमेसर आज तक लौटकर घर नहीं आया। छह महीने बाद बस्ती में कानाफूसी होती रही थी।
‘मेस्ये गिस्ताव रोवियार की बेटी ने जिस बच्चे को जन्म दिया था, उसे नदी के हवाले कर दिया गया।’
सवाल और भी धीमी आवाज में पूछा जाता रहा।
‘पर ऐसा क्यो ?’
‘क्योंकि बच्चे का रंग साँवला था और उसकी आँखें नीली न होकर काली थीं। बिसेसर का शक्कर कोठी के इलाके में प्रवेश वर्जित हो गया। उसी घड़ी से बिसेसर जब भी चोरी चुपके अपने दोस्त नोनोन के सामने होता तो वह बातों के दौरान अनायास विषयांतर लाकर कह जाता।’
‘मेरा रमेसर अगली पूर्णमासी तक घर लौटकर रहेगा।’
बोनोम नोनोन रमेसर को हमेशा आगाह करता रहा था कि वह छोटे मालिक की कोठीवाले इलाके से अपने को हमेशा दूर रखे। नोनोन का बाप इस द्वीप में अपने दो बेटों के साथ दास के रूप में लाया गया था। दासों की फेहरिस्त में नोनोन का नाम गाब्रियेल जोजे तानानारीव था। उस समय नोनोन अपना उन्नीसवाँ साल पूरा कर चुका था।
जब दास प्रथा का अंत हुआ तो नोनोन पच्चीस साल का था। सुनता रहा था कि अब उसके लोगों को चाबुकों की मार नहीं सहनी पड़ेगी। उन्हें कोल्हू के बैल बनने की नौबत अब फिर नहीं आएगी। लेकिन वक्त के साथ नोनोन को लगा कि दास प्रथा का अंत बंद कमरे में कागज पर हुआ था। वह जिस शक्कर कोठी में मजदूर था, वहाँ दासता नहीं मिटी थी। न उसके साथ और न ही भारत से लाए गए गिरमिटिया मजदूरों के साथ। उन्हीं दिनों के यातना शिविरों में से एक उसकी
मुलाकात बिसेसर से हुई थी। दोनों एक दिन अपने गोरे मालिक के हाथ से कोडा़ छीनकर उसके सामने तनकर खड़े हो गए थे। सभी मजदूर सहमे हुए दूर खड़े रह गए थे और देखते-ही-देखते गोरे मालिक के चार सरदार दोनों पर बंदूकें लिये झपट पड़े थे। नोनोन ने झट अपने से छह साल छोटे बिसेसर का हाथ थामा था और पहाड़ की ओर जानेवाली चक्करदार पगडंडी पर दोनों दौड़ गए थे। पूरी शाम, पूरे दिन और आधी रात भागते रहने के बाद नोनोन और बिसेसर ने नोनोन के बड़े भाई सियोन की बस्ती में पहुँचकर पनाह पाई थी।
अपने भाई की मृत्यु के बाद आज उसी बस्ती में नोनोन अस्सी की अवस्था को पार कर रहा था। बस्ती के किसी घर के लिए कुएँ से पानी लाकर चार पैसे कमा लेता था तो किसी घर के लिए लकड़ियाँ लाकर चवन्नी का हकदार हो जाता था। पहली बार जब बिसेसर ने ‘शातो’ से आ रहे उस जोरों के संगीत पर आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा था कि ये इतने जोर से गाने-बजाने वाले कौन हो सकते हैं, तो नोनोन ने बताया था, ‘यार, यह मशीन की आवाज है, गाने- बजाने वाली मशीन।’
बहुत बाद में बिसेसर अपनी आँखों से उस गाने बजानेवाली मशीन को महेंद्र के घर में देख पाया था। उस दिन जब बिसेसर को पहली बार नदी से निकलती हुई वह दो-तीन सालवाली लड़की दिखाई पड़ी थी तो उसने देखा था कि महेंद्र उसकी बगल में चल रहा था। शाम का समय था। दोनों पड़ोस के मेस्ये मारतें की कोठी से गन्ने काट-लादकर घर लौट रहे थे।
बिसेसर ने किनारे खड़े होकर अपने साथी से पूछा था, ‘महेंद्र। यह छोटी बच्ची इस सुनसान डगर पर ?’
बिसेसर के साथी ने सामने देखा था और किसी भी बच्ची को न देखकर पूछ बैठा था, "कहाँ ?"
‘वह पेड़ों की आड़ में जा छिपी।’
एक सप्ताह बाद फिर उसी ठौर पर ठिठककर बिसेसर ने दोबारा उस बच्ची को देखा और महेंद्र को साथ लिये नदी किनारे के पेड़ों के बीच पहुँचकर वह बच्ची को ढूँढ़ता रहा था। ऐसा और भी कई बार हुआ और हर बार महेंद्र ने लगभग एक बात कही, ‘तुम गाँजे का दम लेना बंद करो।’
और हर बार बिसेसर भी एक ही जैसा जवाब देता रहा था, ‘मेरी बात मानो मैंने उस बच्ची को नदी से निकलकर चलते देखा है। बार-बार मेरी आँखों को धोखा हो सकता है क्या ?’
बार-बार महेंद्र कहता रहा कि दिन भर की भारी थकान के बाद दिमाग का कुछ इस तरह डगमगा जाना संभव हो सकता है।
जब अपने मित्र नोनोन को पहली बार बिसेसर ने यह बात बताई थी तो वह यही कह गया था कि कभी- कभार थकान से ऐसा हो जाया करता है। लेकिन जब आज पाँचवी या छठी बार के लिए बिसेसर ने यह कहा कि आज तो वह बच्ची उसके एकदम पास तक आकर फिर से नदी की ओर दौड़ गई थी, तो नोनोन एकदम गंभीर हो गया। उसे अपने भाई सियोन की याद आ गई। एक बार जब वह अपनी नंगी पीठ पर चाबुक के बेशुमार निशान लिये घर लौटा था तो कुटिया के बाहर चहलकदमी करता हुआ स्वयं से ही बड़बड़ाने लगा था। नोनोन को अच्छी तरह याद है।
‘वह परी कहाँ चली गई ? कितनी खूबसूरत थी। कितनी मीठी थी उसकी आवाज !’ नोनोन ने टोका था।
‘क्या बके जा रहे हो ?’
‘अरे नोनोन ! वह सीधे आसमान से उतरकर मेरे आगे आई थी।’
‘चलो भीतर चलकर आराम करो।’
‘आओ देखो, मेरी पीठ पर उसकी कोमल अँगुलियों के निशान। उस अँगुलियों के स्पर्श को मैं अभी भी अपनी पीठ पर अनुभव कर रहा हूँ।’
‘क्या बके जा रहे हो, भाई ?’
‘वह देखो आसमान से वह परी उतरने लगी।’
‘वह रह बनी रहती।’
रात भर सियोन उस परी की बात करता रहा था। बीच-बीच में दर्द से कराहता भी रहा था। सुबह नोनोन ने उसे गरम चाय देने के बाद पूछा था, यह मार क्यों पड़ी तुम्हें ? मालिक के सरदारों से फिर हुज्जत कर बैठे होगे।’
अपने सामने के शून्य को अपलक देखते हुए सियोन ने सारी बात बताई थी, खेतों की कड़कती धूप में सभी मजदूर पसीने से तर जोरों के प्यासे थे। पानी वाला जो पानी छोड़ गया था, उसे ताँगेवाले ने घोड़े पर उड़ले दिया था। हुसेन जब प्यार के कारण बेहोश होकर गिर पड़ा तो मैं दौड़कर ताँगे में रखी मालिक की पानी की बोतल सभी सरदारों की आँखें बचाकर चुरा लाया। हुसेन के चेहरे पर छींटे देकर की बोतल सभी सरदारों की आँखें बचाकर चुरा लाया।
हुसेन के चेहरे पर छींटे देकर मैं उसे पानी पिला रहा था। तभी दो सरदारों ने दोनों तरफ से आकर मुझे दबोच लिया। वे मुझे घसीटते हुए नदी के पास ले गए, जहाँ मालिक पेड़ की छाँव में ऊँघ रहा था। सरदारों से बात जानकर वह अपनी लकड़ी की कुरसी पर से उठा। लाल आँखों से मुझे घूरा और बगल में खड़े पंखा झलनेवाले से चाबुक ले आने को कहा। उसके जूते की मार खाकर मैं जमीन पर गिर पड़ा था। चाबुक आ जाने पर गालियों की बौछार के साथ उसने मुझ पर कोड़े बरसाने शुरू किए। जब गोरे हाथ थक गए तो मलगासी सरदार के काले हाथ में पीठ पर तब तक कोड़े बरसाते रहे जब तक मैं बहोश नहीं हो गया।
इसके बाद सियोन फिर से उस कोठी को नहीं लौटा; नोनोन को छोड़कर द्वीप के इस छोर से उस छोर तक मारा-मारा फिरता रहा। और फिर एक दिन ल्वीज से मुलाकात हो जाने पर इधर ही बस गया था। लेकिन जब नोनोन अपनी बस्ती से भागकर इधर पहुँचा था तो ल्वीज नोनोन को यह कहकर रोलाँ के साथ चली गई थी कि दिन-रात ढपली बजाकर घर नहीं बसाया जा सकता। दोनों भाइयों में पढ़ा-लिखा कोई नहीं था; पर सियोन नोनोन से कहीं अधिक सुलझा हुआ था।
भारतीय मजदूरों की ही तरह इतिहास ने उसके भाई को भी तोड़ देना चाहा था। सियोन ने अपने को टूटने नहीं दिया। नोनोन अभी उसी दिन बिसेसर से उस काली माई के चबूतरे वाली घटना पर बात कर रहा था। बिसेसर की बस्ती और रोनियार की कोठी के बीच काली माई का जो चौतरा था, उसका आधा हिस्सा रोवियार के आलीशान बँगलेवाले भाग में पड़ता था।
वहाँ से बँगले तक एक सीधा रास्ता बनाने के लिए रोवियार ने सियोन को अपने पक्ष में लेने के लिए उससे कहा था, ‘इसे तोड़ने में मदद करोगे तो तुम्हारे घरवाले इलाके की जमीन मैं तुम्हारे नाम कर दूँगा।’
सियोन कभी तैयार नहीं हुआ। सियोन को अपने घर बुलाकर रोवियार ने उससे यह माँग की थी कि बस्ती के बिंदुओं को, जिनके साथ सियोन की गहरी आत्मीयता थी, वह मना ले। कम-से-कम इस बात के लिए राजी कर ले कि वे काली माई के चबूतरे को वहाँ से हटाकर दूसरी जगह पर रखने की बात को मान लें।
बस्ती के लोग जब काली माई के अपने स्थान पर बने रहने के लिए सियोन का आभार मानने लगे थे तो सियोन ने कहा था, ‘आभार मेरा नहीं, मादाम रोवियार का मानना चाहिए, जो शुरू से काली माई को उसके स्थान से हटाने के पक्ष में नहीं थीं।’
रही वह दूसरी बात। उसे तो गाँव वाले पहले ही से जानते थे कि रोवियार की बेटी जब अपनी बच्ची को खोकर पागल हो उठी थी तो मादाम रोवियार ने उमदत्त अहीर को रुपए देकर काली माई की विशेष पूजा करवाई थी। अपनी बेटी की हालत के सुधर जाने पर वह खुद माई को प्रसाद चढ़ाने आ गई थी।
अपने भाई की याद से अपने को मुक्त करके नोनोन अपने दोस्त बिसेसर की बातों को फिर से सुनने लगा, ‘बहुत ही प्यारी बच्ची है नोनोन। साँवला चेहरा, काली आँखें।’
‘बिसू ! तुम्हें अपनी पत्नी और बेटे की यादों से अपने को मुक्त करना चाहिए।’
‘एकदम मेरे बेटे ही जैसा चेहरा। हाँ, मेरे दोस्त एकदम रमेसरवाली मुसकान।’
‘तुम मोह से विचलित हो। दिन में सपने देखना बंद करो।’
गिस्ताव रोवियार के घर से आनेवाला संगीत इधर कुछ दिनों से कुछ धीमा पड़ गया था।
राहत महसूस करते हुए नोनोन ने बिसेसर का ध्यान बँटाने हेतु कहा, ‘लगता है रोवियार के दोनों मनचले लड़कों को अब इस बात का संतोष हो गया कि अब पूरी बस्ती के लोगों पर उनकी गानेवाली मशीन की धाक जम गई।’
सियोन की मृत्यु के बाद इन दोनों लड़कों ने कई बार रोवियार के साथ सियोन की कुटिया तक आकर उस जगह छोड़ जाने के लिए कहते रहे थे। गाँव वालों ने पहले ही नोनोन को बता दिया था कि अब सरकारी जमीन थी और केवल सरकार ही उसे वहाँ से हटा सकती है। बिसेसर तो यहाँ तक कह गया था कि इतने वर्षों बाद अब तो सरकार भी उसे वहाँ से टस-से-मस नहीं कर सकती।
नोनोन के यहाँ से लौटते समय अँधेरा छाने लगा था। पेड़ों के बीच की धूमिल पगडंडी से बिसेसर नदी की बगल से गुजरा, जहाँ धुँधलापन और भी गहन था। लगता था कि अचानक चारों ओर एकदम अँधेरा छा जाएगा। नदी की कल-कल की ध्वनि माहौल को अधिक बेगानेपन से बचाए हुए थी। बुआन्वार के पेड़ से सूखी फलियों के बीज की झरपराहट रह-रहकर सिहरन पैदा कर जानेवाली होती थी। बिसेसर का बेटा जब पहली बार अपने बाप के साथ इस रास्ते से रात के वक्त गुजरा था तो सूखी फलियों की उस डरावनी झनझनाहट से डर गया था।
वह उन पेड़ों को भूतिया पेड़ मान बैठा था। लेकिन उस शाम जब सोफिया उसकी बगल में थी तो पहली बार वह आवाज उसे एक मधुर संगीत सा प्रतीत हुई थी।
बेटे की याद आते ही उसे लगा कि रमेसर उसकी बगल में चल रहा था। उसके कपड़ों से आनेवाली लावांद की वह सुगंध आज भी जंगली फूलों की गंध पर मानो हावी हो गई। बिसेसर ने जब पहली बार अपने बेटे के हाथ में वह शीशी देखी थी और उसके कपड़ों से उसकी खुशबू पाई थी तो हैरान होकर पूछा था, ‘रामू यह इत्र तुम्हें कहाँ से मिला ?’
‘मैं नहीं बता पाऊँगा, बाबा।’
‘यह तो बहुत महँगी बिकनेवाली खुशबू है। कहाँ से मिली तुम्हें ?’
रमेसर फिर भी चुप ही रहा था और विसेसर को बोलना ही पडा था, ‘यह इत्र तो सिर्फ गोरे लोगों के पास होता है। कहीं तुमने ‘शातो’ से चुराया तो नहीं ?’
‘नहीं बाबा।’
‘तो तुम्हें मिला कहाँ से ?’
उस दिन तो रमेसर ने उससे आगे अपने पिता को कुछ नहीं बताया था। लगभग महीने भर बाद खेत में कटे हुए गन्ने के बोझ को कंधे पर उठाकर रेल के डिब्बे पर लादते बिसेसर ने अपने बेटे के गले से कोई चीज गिरते देख लिया था। उस चीज को अपने गले से गिरने का पता रमेसर को नहीं चला था।
गन्ने की सूखी पत्तियों को हटाकर बिसेसर ने वह चमकीली चीज उठाई थी। उस पर नजर पड़ते ही उसका हाथ काँप उठा था। अपने बेटे को बिना कुछ बताए उसने इस चीज को अपनी फतूही के छोर में चुपके से बाँध लिया था। रात में अपने बेटे के साथ बैठका में होनेवाले साप्ताहिक रामायण के सत्संग में न जाकर वह घर में ही रह गया था। उससे भरपेट खाना नहीं खाया गया था।
जशोदा को पूछना ही पड़ा था, ‘आपकी पसंद का साग बनाया है मैंने, फिर भी आपने आधा ही पराँठा खाया।’
‘बैठो जशोदा ! तुम्हें एक बात बतानी है।’ और वह वस्तु, जो बिसेसर ने मिट्टी के तेलवाले चिराग की धुँधली रोशनी में अपनी पत्नी के सामने रखी तो उससे वह चीज चिराग की रोशनी से भी अधिक चमक उठी। उसकी उस चमक से जशोदा की आँखें अपने में हैरानी लिये चमक गईं। अपने पति के हाथ से उसे लेकर उसने उसे अपने हाथ पर झूल जाने दिया। हैरत भरी आवाज में बोली थी, ‘सोने का हार। पर...पर यह...’ ?
‘सलीब है। हमारे बेटे के गले से गिरा था।’
‘रमेसर के गले में सोने का हार और वह भी सलीब के साथ ! पर मैंने तो इसे उसके गले में कभी नहीं देखा।’
‘कैसे देख पाती ! इधर कुछ दिनों से तो वह कमीज की बटन गले तक लगाए रहता था।’
‘क्या अंजनी के बेटे की तरह गिरजाघर के पादरी ने हमारे रामू को भी कहीं...’
‘नहीं जासो ! हमारे बेटे से कोई उसका धर्म नहीं छुड़वा सकता।’
‘तो फिर उसका अपने गले में सलीब लटकाए रहने का क्या मतलब हुआ ?’
‘यही तो समझ में न आनेवाली बात है।’
पिछले दिनों की बरसात के कारण नदी में पानी के साथ-साथ लहरों की गति भी बढ़ आई थी। फिर भी बिसेसर को लगा कि इसके बावजूद नदी की लहरों में दहाड़ की जगह कराह थी। आसमान से एक-दो तारे जहाँ-तहाँ से झाँकने लगे थे पर उनमें बढ़ते आ रहे अँधेरे को रोकने की ताकत नहीं थी। बिसेसर के मन ने चाहा कि वह नदी के तट पर की उस चट्टान पर जा बैठे जहाँ से वह नोनोन को झींगे फँसाते देखता रहता। उसके भोजपुरी और क्रिओली गानों, जो अपने भाई की नकल
करके भी वह उसी खूबी के साथ कभी नहीं गा सका, को बिसेसर सुनता रहता था, पर आज वह सेगा सुनने की रौ में नहीं था। वह चट्टान पर बैठकर साँवले रंग और काली आँखों वाली उस बच्ची की आवाज सुनना चाह रहा था। उसके मस्तिष्क में प्रश्न तैयार थे और उसे विश्वास था कि एक न एक प्रश्न का उत्तर उसे पानी के भीतर से मिलकर रहेगा।
बिसेसर ने मन के चाहने पर बहुत कम अवसरों पर अपने को मन के हवाले होने दिया था; पर अपनी एक आंतरिक पीड़ा को नोनोन के सामने रखे से वह अपने को नहीं रोक सका था। धीमे स्वर में बोल ही गया था, ‘नोनोन, यह पछतावा अब जीवन भर बना रहेगा कि मेरे कुल परंपरा को अब आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं रहा। अपनी जमीन से उखड़कर यहाँ आया था। बिना कोई पेड़ रोपे इस दुनिया से चला जाऊँगा।
पर अपने मित्र नोनोन से मिलने वह कभी-कभार आ ही जाता था। शक्कर कोठी के छोटे मालिक गिस्ताव का आलीशन मकान, जिसे बस्ती के लोग ‘शातो’ कहते थे, वास्तव में एक महल ही तो था। नोनोन की झोंपड़ी से ऊपर जहाँ पहाड़ी दूर तक समतल थी और जहाँ यह महल स्थित था, वह स्थान तीन ओर से हरे-भरे मनमोहक पेड़ों से घिरा हुआ था।
उस ऊँचाई पर आज सेगा के उस दिन के शोर भी अधिक ऊँचे शोर के साथ वाला संगीत ‘शातो’ से गूँजता हुआ बोनोम नोनोन की कुटिया तक पहुँच रहा था। रात चाँदनी लिये हुई थी। बादल के टुकड़े मस्ती के साथ पश्चिमी क्षितिज की तरफ भागे जा रहे थे। बादलों के पीछे जब-तब चाँद के छिप जाने से ऊपर के पेड़ों की डालियों के हिलने के बीच ‘शातो’ की रोशनी झिलमिला उठती।
उस कोलाहल के बीच भी नोनोन अपनी ढपली के साथ अपने भाई सिमोन का रचा हुआ सेगा गुनगुनाता रहा। हवा में ऊपर से आती हुई रात की रानी तथा अन्य फूल पौधों की भीनी- भीनी गंध नोनोन और बिसेसर की नाकों को छूती हुई माहौल में बनी रही।
इन भीनी-भीनी गंधों ने एक बार फिर बिसेसर के भीतर अपने इकलौते बेटे की याद को ताजा कर दिया। ऐसी ही चाँदनी रात थी। ऐसी ही ठंडक। ठीक सामने के नोनोन द्वारा सुलगाई अँगीठी के अंगारे जैसी ही आँच बिसेसर अपने घर के भीतर ताप रहा था, जब गिस्ताव रोवियार दो बंदूकधारियों के साथ उसके दरवाजे पर धक्के देकर भीतर आ गया था। बिसेसर की बीमार पत्नी चारपाई पर थी। बंदूकधारियों को देख वह चिल्ला उठी थी। उससे भी अधिक जोर से गिस्ताव रोवियार चिल्लाया था।
कहाँ है वह सुअर का बच्चा ?"
एक बंदूक बिससेर की कनपटी और दूसरी बिसेसर की पत्नी की छाती पर तन गई थी। इस घटना के सप्ताह भर बाद बिसेसर की पत्नी, रमेसर की माँ अपने बेटे की हाय-हाय में चल बसी थी। रमेसर आज तक लौटकर घर नहीं आया। छह महीने बाद बस्ती में कानाफूसी होती रही थी।
‘मेस्ये गिस्ताव रोवियार की बेटी ने जिस बच्चे को जन्म दिया था, उसे नदी के हवाले कर दिया गया।’
सवाल और भी धीमी आवाज में पूछा जाता रहा।
‘पर ऐसा क्यो ?’
‘क्योंकि बच्चे का रंग साँवला था और उसकी आँखें नीली न होकर काली थीं। बिसेसर का शक्कर कोठी के इलाके में प्रवेश वर्जित हो गया। उसी घड़ी से बिसेसर जब भी चोरी चुपके अपने दोस्त नोनोन के सामने होता तो वह बातों के दौरान अनायास विषयांतर लाकर कह जाता।’
‘मेरा रमेसर अगली पूर्णमासी तक घर लौटकर रहेगा।’
बोनोम नोनोन रमेसर को हमेशा आगाह करता रहा था कि वह छोटे मालिक की कोठीवाले इलाके से अपने को हमेशा दूर रखे। नोनोन का बाप इस द्वीप में अपने दो बेटों के साथ दास के रूप में लाया गया था। दासों की फेहरिस्त में नोनोन का नाम गाब्रियेल जोजे तानानारीव था। उस समय नोनोन अपना उन्नीसवाँ साल पूरा कर चुका था।
जब दास प्रथा का अंत हुआ तो नोनोन पच्चीस साल का था। सुनता रहा था कि अब उसके लोगों को चाबुकों की मार नहीं सहनी पड़ेगी। उन्हें कोल्हू के बैल बनने की नौबत अब फिर नहीं आएगी। लेकिन वक्त के साथ नोनोन को लगा कि दास प्रथा का अंत बंद कमरे में कागज पर हुआ था। वह जिस शक्कर कोठी में मजदूर था, वहाँ दासता नहीं मिटी थी। न उसके साथ और न ही भारत से लाए गए गिरमिटिया मजदूरों के साथ। उन्हीं दिनों के यातना शिविरों में से एक उसकी
मुलाकात बिसेसर से हुई थी। दोनों एक दिन अपने गोरे मालिक के हाथ से कोडा़ छीनकर उसके सामने तनकर खड़े हो गए थे। सभी मजदूर सहमे हुए दूर खड़े रह गए थे और देखते-ही-देखते गोरे मालिक के चार सरदार दोनों पर बंदूकें लिये झपट पड़े थे। नोनोन ने झट अपने से छह साल छोटे बिसेसर का हाथ थामा था और पहाड़ की ओर जानेवाली चक्करदार पगडंडी पर दोनों दौड़ गए थे। पूरी शाम, पूरे दिन और आधी रात भागते रहने के बाद नोनोन और बिसेसर ने नोनोन के बड़े भाई सियोन की बस्ती में पहुँचकर पनाह पाई थी।
अपने भाई की मृत्यु के बाद आज उसी बस्ती में नोनोन अस्सी की अवस्था को पार कर रहा था। बस्ती के किसी घर के लिए कुएँ से पानी लाकर चार पैसे कमा लेता था तो किसी घर के लिए लकड़ियाँ लाकर चवन्नी का हकदार हो जाता था। पहली बार जब बिसेसर ने ‘शातो’ से आ रहे उस जोरों के संगीत पर आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा था कि ये इतने जोर से गाने-बजाने वाले कौन हो सकते हैं, तो नोनोन ने बताया था, ‘यार, यह मशीन की आवाज है, गाने- बजाने वाली मशीन।’
बहुत बाद में बिसेसर अपनी आँखों से उस गाने बजानेवाली मशीन को महेंद्र के घर में देख पाया था। उस दिन जब बिसेसर को पहली बार नदी से निकलती हुई वह दो-तीन सालवाली लड़की दिखाई पड़ी थी तो उसने देखा था कि महेंद्र उसकी बगल में चल रहा था। शाम का समय था। दोनों पड़ोस के मेस्ये मारतें की कोठी से गन्ने काट-लादकर घर लौट रहे थे।
बिसेसर ने किनारे खड़े होकर अपने साथी से पूछा था, ‘महेंद्र। यह छोटी बच्ची इस सुनसान डगर पर ?’
बिसेसर के साथी ने सामने देखा था और किसी भी बच्ची को न देखकर पूछ बैठा था, "कहाँ ?"
‘वह पेड़ों की आड़ में जा छिपी।’
एक सप्ताह बाद फिर उसी ठौर पर ठिठककर बिसेसर ने दोबारा उस बच्ची को देखा और महेंद्र को साथ लिये नदी किनारे के पेड़ों के बीच पहुँचकर वह बच्ची को ढूँढ़ता रहा था। ऐसा और भी कई बार हुआ और हर बार महेंद्र ने लगभग एक बात कही, ‘तुम गाँजे का दम लेना बंद करो।’
और हर बार बिसेसर भी एक ही जैसा जवाब देता रहा था, ‘मेरी बात मानो मैंने उस बच्ची को नदी से निकलकर चलते देखा है। बार-बार मेरी आँखों को धोखा हो सकता है क्या ?’
बार-बार महेंद्र कहता रहा कि दिन भर की भारी थकान के बाद दिमाग का कुछ इस तरह डगमगा जाना संभव हो सकता है।
जब अपने मित्र नोनोन को पहली बार बिसेसर ने यह बात बताई थी तो वह यही कह गया था कि कभी- कभार थकान से ऐसा हो जाया करता है। लेकिन जब आज पाँचवी या छठी बार के लिए बिसेसर ने यह कहा कि आज तो वह बच्ची उसके एकदम पास तक आकर फिर से नदी की ओर दौड़ गई थी, तो नोनोन एकदम गंभीर हो गया। उसे अपने भाई सियोन की याद आ गई। एक बार जब वह अपनी नंगी पीठ पर चाबुक के बेशुमार निशान लिये घर लौटा था तो कुटिया के बाहर चहलकदमी करता हुआ स्वयं से ही बड़बड़ाने लगा था। नोनोन को अच्छी तरह याद है।
‘वह परी कहाँ चली गई ? कितनी खूबसूरत थी। कितनी मीठी थी उसकी आवाज !’ नोनोन ने टोका था।
‘क्या बके जा रहे हो ?’
‘अरे नोनोन ! वह सीधे आसमान से उतरकर मेरे आगे आई थी।’
‘चलो भीतर चलकर आराम करो।’
‘आओ देखो, मेरी पीठ पर उसकी कोमल अँगुलियों के निशान। उस अँगुलियों के स्पर्श को मैं अभी भी अपनी पीठ पर अनुभव कर रहा हूँ।’
‘क्या बके जा रहे हो, भाई ?’
‘वह देखो आसमान से वह परी उतरने लगी।’
‘वह रह बनी रहती।’
रात भर सियोन उस परी की बात करता रहा था। बीच-बीच में दर्द से कराहता भी रहा था। सुबह नोनोन ने उसे गरम चाय देने के बाद पूछा था, यह मार क्यों पड़ी तुम्हें ? मालिक के सरदारों से फिर हुज्जत कर बैठे होगे।’
अपने सामने के शून्य को अपलक देखते हुए सियोन ने सारी बात बताई थी, खेतों की कड़कती धूप में सभी मजदूर पसीने से तर जोरों के प्यासे थे। पानी वाला जो पानी छोड़ गया था, उसे ताँगेवाले ने घोड़े पर उड़ले दिया था। हुसेन जब प्यार के कारण बेहोश होकर गिर पड़ा तो मैं दौड़कर ताँगे में रखी मालिक की पानी की बोतल सभी सरदारों की आँखें बचाकर चुरा लाया। हुसेन के चेहरे पर छींटे देकर की बोतल सभी सरदारों की आँखें बचाकर चुरा लाया।
हुसेन के चेहरे पर छींटे देकर मैं उसे पानी पिला रहा था। तभी दो सरदारों ने दोनों तरफ से आकर मुझे दबोच लिया। वे मुझे घसीटते हुए नदी के पास ले गए, जहाँ मालिक पेड़ की छाँव में ऊँघ रहा था। सरदारों से बात जानकर वह अपनी लकड़ी की कुरसी पर से उठा। लाल आँखों से मुझे घूरा और बगल में खड़े पंखा झलनेवाले से चाबुक ले आने को कहा। उसके जूते की मार खाकर मैं जमीन पर गिर पड़ा था। चाबुक आ जाने पर गालियों की बौछार के साथ उसने मुझ पर कोड़े बरसाने शुरू किए। जब गोरे हाथ थक गए तो मलगासी सरदार के काले हाथ में पीठ पर तब तक कोड़े बरसाते रहे जब तक मैं बहोश नहीं हो गया।
इसके बाद सियोन फिर से उस कोठी को नहीं लौटा; नोनोन को छोड़कर द्वीप के इस छोर से उस छोर तक मारा-मारा फिरता रहा। और फिर एक दिन ल्वीज से मुलाकात हो जाने पर इधर ही बस गया था। लेकिन जब नोनोन अपनी बस्ती से भागकर इधर पहुँचा था तो ल्वीज नोनोन को यह कहकर रोलाँ के साथ चली गई थी कि दिन-रात ढपली बजाकर घर नहीं बसाया जा सकता। दोनों भाइयों में पढ़ा-लिखा कोई नहीं था; पर सियोन नोनोन से कहीं अधिक सुलझा हुआ था।
भारतीय मजदूरों की ही तरह इतिहास ने उसके भाई को भी तोड़ देना चाहा था। सियोन ने अपने को टूटने नहीं दिया। नोनोन अभी उसी दिन बिसेसर से उस काली माई के चबूतरे वाली घटना पर बात कर रहा था। बिसेसर की बस्ती और रोनियार की कोठी के बीच काली माई का जो चौतरा था, उसका आधा हिस्सा रोवियार के आलीशान बँगलेवाले भाग में पड़ता था।
वहाँ से बँगले तक एक सीधा रास्ता बनाने के लिए रोवियार ने सियोन को अपने पक्ष में लेने के लिए उससे कहा था, ‘इसे तोड़ने में मदद करोगे तो तुम्हारे घरवाले इलाके की जमीन मैं तुम्हारे नाम कर दूँगा।’
सियोन कभी तैयार नहीं हुआ। सियोन को अपने घर बुलाकर रोवियार ने उससे यह माँग की थी कि बस्ती के बिंदुओं को, जिनके साथ सियोन की गहरी आत्मीयता थी, वह मना ले। कम-से-कम इस बात के लिए राजी कर ले कि वे काली माई के चबूतरे को वहाँ से हटाकर दूसरी जगह पर रखने की बात को मान लें।
बस्ती के लोग जब काली माई के अपने स्थान पर बने रहने के लिए सियोन का आभार मानने लगे थे तो सियोन ने कहा था, ‘आभार मेरा नहीं, मादाम रोवियार का मानना चाहिए, जो शुरू से काली माई को उसके स्थान से हटाने के पक्ष में नहीं थीं।’
रही वह दूसरी बात। उसे तो गाँव वाले पहले ही से जानते थे कि रोवियार की बेटी जब अपनी बच्ची को खोकर पागल हो उठी थी तो मादाम रोवियार ने उमदत्त अहीर को रुपए देकर काली माई की विशेष पूजा करवाई थी। अपनी बेटी की हालत के सुधर जाने पर वह खुद माई को प्रसाद चढ़ाने आ गई थी।
अपने भाई की याद से अपने को मुक्त करके नोनोन अपने दोस्त बिसेसर की बातों को फिर से सुनने लगा, ‘बहुत ही प्यारी बच्ची है नोनोन। साँवला चेहरा, काली आँखें।’
‘बिसू ! तुम्हें अपनी पत्नी और बेटे की यादों से अपने को मुक्त करना चाहिए।’
‘एकदम मेरे बेटे ही जैसा चेहरा। हाँ, मेरे दोस्त एकदम रमेसरवाली मुसकान।’
‘तुम मोह से विचलित हो। दिन में सपने देखना बंद करो।’
गिस्ताव रोवियार के घर से आनेवाला संगीत इधर कुछ दिनों से कुछ धीमा पड़ गया था।
राहत महसूस करते हुए नोनोन ने बिसेसर का ध्यान बँटाने हेतु कहा, ‘लगता है रोवियार के दोनों मनचले लड़कों को अब इस बात का संतोष हो गया कि अब पूरी बस्ती के लोगों पर उनकी गानेवाली मशीन की धाक जम गई।’
सियोन की मृत्यु के बाद इन दोनों लड़कों ने कई बार रोवियार के साथ सियोन की कुटिया तक आकर उस जगह छोड़ जाने के लिए कहते रहे थे। गाँव वालों ने पहले ही नोनोन को बता दिया था कि अब सरकारी जमीन थी और केवल सरकार ही उसे वहाँ से हटा सकती है। बिसेसर तो यहाँ तक कह गया था कि इतने वर्षों बाद अब तो सरकार भी उसे वहाँ से टस-से-मस नहीं कर सकती।
नोनोन के यहाँ से लौटते समय अँधेरा छाने लगा था। पेड़ों के बीच की धूमिल पगडंडी से बिसेसर नदी की बगल से गुजरा, जहाँ धुँधलापन और भी गहन था। लगता था कि अचानक चारों ओर एकदम अँधेरा छा जाएगा। नदी की कल-कल की ध्वनि माहौल को अधिक बेगानेपन से बचाए हुए थी। बुआन्वार के पेड़ से सूखी फलियों के बीज की झरपराहट रह-रहकर सिहरन पैदा कर जानेवाली होती थी। बिसेसर का बेटा जब पहली बार अपने बाप के साथ इस रास्ते से रात के वक्त गुजरा था तो सूखी फलियों की उस डरावनी झनझनाहट से डर गया था।
वह उन पेड़ों को भूतिया पेड़ मान बैठा था। लेकिन उस शाम जब सोफिया उसकी बगल में थी तो पहली बार वह आवाज उसे एक मधुर संगीत सा प्रतीत हुई थी।
बेटे की याद आते ही उसे लगा कि रमेसर उसकी बगल में चल रहा था। उसके कपड़ों से आनेवाली लावांद की वह सुगंध आज भी जंगली फूलों की गंध पर मानो हावी हो गई। बिसेसर ने जब पहली बार अपने बेटे के हाथ में वह शीशी देखी थी और उसके कपड़ों से उसकी खुशबू पाई थी तो हैरान होकर पूछा था, ‘रामू यह इत्र तुम्हें कहाँ से मिला ?’
‘मैं नहीं बता पाऊँगा, बाबा।’
‘यह तो बहुत महँगी बिकनेवाली खुशबू है। कहाँ से मिली तुम्हें ?’
रमेसर फिर भी चुप ही रहा था और विसेसर को बोलना ही पडा था, ‘यह इत्र तो सिर्फ गोरे लोगों के पास होता है। कहीं तुमने ‘शातो’ से चुराया तो नहीं ?’
‘नहीं बाबा।’
‘तो तुम्हें मिला कहाँ से ?’
उस दिन तो रमेसर ने उससे आगे अपने पिता को कुछ नहीं बताया था। लगभग महीने भर बाद खेत में कटे हुए गन्ने के बोझ को कंधे पर उठाकर रेल के डिब्बे पर लादते बिसेसर ने अपने बेटे के गले से कोई चीज गिरते देख लिया था। उस चीज को अपने गले से गिरने का पता रमेसर को नहीं चला था।
गन्ने की सूखी पत्तियों को हटाकर बिसेसर ने वह चमकीली चीज उठाई थी। उस पर नजर पड़ते ही उसका हाथ काँप उठा था। अपने बेटे को बिना कुछ बताए उसने इस चीज को अपनी फतूही के छोर में चुपके से बाँध लिया था। रात में अपने बेटे के साथ बैठका में होनेवाले साप्ताहिक रामायण के सत्संग में न जाकर वह घर में ही रह गया था। उससे भरपेट खाना नहीं खाया गया था।
जशोदा को पूछना ही पड़ा था, ‘आपकी पसंद का साग बनाया है मैंने, फिर भी आपने आधा ही पराँठा खाया।’
‘बैठो जशोदा ! तुम्हें एक बात बतानी है।’ और वह वस्तु, जो बिसेसर ने मिट्टी के तेलवाले चिराग की धुँधली रोशनी में अपनी पत्नी के सामने रखी तो उससे वह चीज चिराग की रोशनी से भी अधिक चमक उठी। उसकी उस चमक से जशोदा की आँखें अपने में हैरानी लिये चमक गईं। अपने पति के हाथ से उसे लेकर उसने उसे अपने हाथ पर झूल जाने दिया। हैरत भरी आवाज में बोली थी, ‘सोने का हार। पर...पर यह...’ ?
‘सलीब है। हमारे बेटे के गले से गिरा था।’
‘रमेसर के गले में सोने का हार और वह भी सलीब के साथ ! पर मैंने तो इसे उसके गले में कभी नहीं देखा।’
‘कैसे देख पाती ! इधर कुछ दिनों से तो वह कमीज की बटन गले तक लगाए रहता था।’
‘क्या अंजनी के बेटे की तरह गिरजाघर के पादरी ने हमारे रामू को भी कहीं...’
‘नहीं जासो ! हमारे बेटे से कोई उसका धर्म नहीं छुड़वा सकता।’
‘तो फिर उसका अपने गले में सलीब लटकाए रहने का क्या मतलब हुआ ?’
‘यही तो समझ में न आनेवाली बात है।’
पिछले दिनों की बरसात के कारण नदी में पानी के साथ-साथ लहरों की गति भी बढ़ आई थी। फिर भी बिसेसर को लगा कि इसके बावजूद नदी की लहरों में दहाड़ की जगह कराह थी। आसमान से एक-दो तारे जहाँ-तहाँ से झाँकने लगे थे पर उनमें बढ़ते आ रहे अँधेरे को रोकने की ताकत नहीं थी। बिसेसर के मन ने चाहा कि वह नदी के तट पर की उस चट्टान पर जा बैठे जहाँ से वह नोनोन को झींगे फँसाते देखता रहता। उसके भोजपुरी और क्रिओली गानों, जो अपने भाई की नकल
करके भी वह उसी खूबी के साथ कभी नहीं गा सका, को बिसेसर सुनता रहता था, पर आज वह सेगा सुनने की रौ में नहीं था। वह चट्टान पर बैठकर साँवले रंग और काली आँखों वाली उस बच्ची की आवाज सुनना चाह रहा था। उसके मस्तिष्क में प्रश्न तैयार थे और उसे विश्वास था कि एक न एक प्रश्न का उत्तर उसे पानी के भीतर से मिलकर रहेगा।
बिसेसर ने मन के चाहने पर बहुत कम अवसरों पर अपने को मन के हवाले होने दिया था; पर अपनी एक आंतरिक पीड़ा को नोनोन के सामने रखे से वह अपने को नहीं रोक सका था। धीमे स्वर में बोल ही गया था, ‘नोनोन, यह पछतावा अब जीवन भर बना रहेगा कि मेरे कुल परंपरा को अब आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं रहा। अपनी जमीन से उखड़कर यहाँ आया था। बिना कोई पेड़ रोपे इस दुनिया से चला जाऊँगा।
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